Saturday, January 29, 2011

Noise!!!!!!!!!!!!!!

कितना है यहाँ अपना ही शोर |
गाड़ियों का, गालियों का, अपनों का, अंजानो का, मेरा, तुम्हारा, जीत का, हर का | 

कितना है यहाँ अपना ही शोर |
सुबह को, शाम को, दिन को रात को , अन्दर भी, बाहर भी |  

बेचैन हम घूम रहे हैं  
खुद ही शोर कर रहे हैं |

दूसरों को दोष क्या दें
हम खुद कहाँ निर्दोष हैं |
 

एक दिन चौराहे पर बैठ,
मैं यूं ही सोचता रहा, 
क्यों नहीं है शांति किसी ओर ?
क्यों मचा रहे हैं सब ये शोर ?
क्यों हैं सब इतने विचलित ?
क्या नहीं मिल सकता दो पल का सुकून किसी कोने में ?
क्यों बदल गयी है दुनिया इस तरह से ?

आँखें बंद कर, रखा मैंने अपने कानो पर हाथ
तब जा कर सुना मैंने अपना यह शोर |
शोर एक तूफान का, एक उफान का 
दुनिया को जीत लेने के अरमान का |
मैं भी, तुम भी, हर कोई लगा है इस दौड़ में
फिर क्यों ना हो शोर हर मोड़ पे |

आखिर समझा मैं
थम गयी शोर कि वो गर्जन 
शायद समझ जाएँ बांकी सभी जन |

कितना है यहाँ अपना ही शोर |
आओ प्रयत्न करें कल हो एक शांत विभोर ||

1 comment:

  1. Anonymous8:58 PM

    there is pain and there is beauty in this post...keep it up

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