कितना है यहाँ अपना ही शोर |
गाड़ियों का, गालियों का, अपनों का, अंजानो का, मेरा, तुम्हारा, जीत का, हर का |
कितना है यहाँ अपना ही शोर |
सुबह को, शाम को, दिन को रात को , अन्दर भी, बाहर भी |
बेचैन हम घूम रहे हैं
खुद ही शोर कर रहे हैं |
दूसरों को दोष क्या दें
हम खुद कहाँ निर्दोष हैं |
एक दिन चौराहे पर बैठ,
मैं यूं ही सोचता रहा,
क्यों नहीं है शांति किसी ओर ?
क्यों मचा रहे हैं सब ये शोर ?
क्यों हैं सब इतने विचलित ?
क्या नहीं मिल सकता दो पल का सुकून किसी कोने में ?
क्यों बदल गयी है दुनिया इस तरह से ?
आँखें बंद कर, रखा मैंने अपने कानो पर हाथ
तब जा कर सुना मैंने अपना यह शोर |
शोर एक तूफान का, एक उफान का
आखिर समझा मैं
कितना है यहाँ अपना ही शोर |
there is pain and there is beauty in this post...keep it up
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